Tuesday, November 12, 2013

Kissa-e Kadyan-Khap किस्सा-ए काद्याण-खाप Author : Dayanand Deswal


 Kissa-e Kadyan-Khap किस्सा-ए काद्याण-खाप 
Author : Dayanand Deswal



The Kadyan Khap in Haryana is stated to be comprising 12 villages : Beri, Doobaldhan, Maazra, Cheemni, Dharanna, Chhuana, Daadyan, Baghpur, Madina, Dhaudd, Mangawas, Garhi (बेरी, दूबलधन, माजरा, चीमनी, ढराणा, छुआणा, दादयां, बाघपुर, मदीणा, धौड़, मांगावास और गढ़ी). [Please don’t be confused about ‘Madina’ – there is another ‘Madina’ (Dangi) between Rohtak and Maham].  

This area has a prime location – fertile lands and meadows, plain fields suitable for canal irrigation – several water-canals pass through this area now. During pre-Independence era, living conditions were harsh – frequent famines due to scarcity of rains, damage to standing crops by wild animals, exploitation of farmers by money-lenders and social evils like superstitions preached by pope Brahmins. Before 1947, there used to be another group of 12 tiny villages, mainly of Muslim inhabitants around this area – mainly Kalanaur, Kahnaur, Aavgadhi and Nivanna. There are stories about confrontations between Jats and Muslims of this area, primarily on account of cow-slaughter by some of the Muslims and the organized crimes like cattle-thefts. 

This thread, a bit lengthy - in Hindi/Haryanavi is presented by me based on some inputs by elders of Kadyan Khap villages. While reading, please have an imagination that you are in this area about seven decades ago - around 1940. 

Traditionally, we Jats have been following two important professions – farming (हाळी) and rearing of domestic cattle (पाळी). Today’s cow & buffalo grazers (पाळी) in villages happen to be utter illiterates and I feel pity for them. But let us not forget – even Lord Rama and Krishna happened to be cow-grazers in their childhood. In my earlier writings, I have written enough for farmers (हाळी). As my tribute to these cowboys and their profession (‘पाळी’), I am now presenting, at the end of this post, a few short scenes of cow-buffalo grazing Jat boys in Kadyan Khap’s rural surroundings, much like a documentary film script. 

If there is a lapse/ mistake in facts etc., would request a pardon. Please also see comments in the end. 

(Alphabet is different from – pronunciated as in हाळी and पाळी. This alphabet is extensively used in Marathi and Haryanavi)

मैने बेरी गांव के एक चौधरी से एक बेबाक बात पूछी - खेती और पशु-पालन तो सभी करते हैं - पंजाब के लोग भी यही काम करते हैं । उनका रहन सहन ऊंचा है, वे लोग साफ सुथरे रहते हैं, पशुओं का घर अलग बनाते हैं और आदमी और पशु एक ही कमरे में नहीं सोते । फिर क्या वजह है कि हमारे इस हरयाणा के गावों वाले लोग भैंस और दूसरे ढ़ोर-डंगरों के पास ही खाट डाल कर सोते हैं, गोबर के छींटे उनके कपड़ों पर लगे रहते हैं और कमरे में बदबू भी रहती है जबकि उनके पास रहने के लिए जमीन की कमी नहीं है । 

उस चौधरी साहब ने इस सवाल का बहुत ही अच्छा जवाब दिया, जिसकी मैं बहुत तारीफ करता हूं। पहले खेती से नकदी मिलना बहुत मुश्किल था, अकाल पड़ते थे, सिंचाई के साधन कम थे, आजकल की तरह इतना अनाज नहीं होता था कि फालतू बच जाये और बेचकर कुछ पैसे मिल जायें । पशु बेचने से ही कुछ नकदी मिल जाती थी - गाय-भैंस पालकर बचे हुए घी को बेचकर भी कुछ नकद पैसे मिल जाते थे । पशुधन ही उनकी असली 'cash crop' हुआ करती थी, इसलिए पशुओं की रखवाली बहुत ही जरूरी थी, पशु ही ज्यादातर चोरी हो जाते थे । इसीलिए लोग किसी-न-किसी को पशुओं की रखवाली के लिए उनके पास ही सुलाते थे ।

काहनौर-कलानौर वाले मुसलमानों का आम पेशा था - पशुओं की चोरी करना । आम तौर पर यह काम वे रात को करते थे, जब सभी सो रहे होते थे । हालांकि अपने जानने वालों के यहां वे ऐसी चोरी नहीं करते थे और गलती से उनका पशु चोरी हो जाये तो वे उसे लौटा भी देते थे । काहनौर का सुलेमान बूढ़ा मुसलमान था जो इलाके के ज्यादातर बुजुर्गों को जानता था ।

सुलेमान माजरा गांव में एक चौधरी के यहां बैठा था । शाम हो गई - चौधरी ने उसे रोटी खाने को दी । पड़ौसी ने देख लिया और चौधरी से बोला - "अरै, इस गाड़े नै क्यूं रोटी खुवावै सै? इसके छोरे तै म्हारे ढौर-डांगरां नै खोल-कै ले-ज्यां सैं, और कम यो भी ना सै ।"

सुलेमान - ना चौधरी, हाम और आप तो चाचा-ताऊ के भाई हैं ।

पड़ौसी - चल सुसरा गाड़ा - हाम और तू क्यूकर चाचा-ताऊ के हो-गे ?"

चौधरी बोला "ना रै, यो सुलेमान तै बेचारा बूढा आदमी सै, इसके बसका कुछ ना सै" । 

सुलेमान फिर चुपचाप सुनता रहा । आधी रात को चौधरी का बैल खोलकर चलता बना - और तो और, उस पड़ौस वाले चौधरी का बैल भी उसी रात चोरी हो गया । सुबह दोनों चौधरी पहुंचे काहनौर और पहले वाला चौधरी सुलेमान से बोला "खान, बुळध आ-ग्या?"

सुलेमान - हां चौधरी साहब, आपका बैल मेरे पास आ लिया ।

चौधरी - अरै खान, मन्नै तै तेरे ताहीं रोटी खुवाई और तू मेरा-ए बुळध खोल-ल्याया?

सुलेमान - देख चौधरी साहब, खुदा की कसम, मेरे से यह सुनना बर्दाश्त नहीं हुआ । आपने यह कह कैसे दिया कि सुलेमान बूढा है और उसके बसका काम नहीं है ? अब तो आपको यकीन आ गया ना कि मैं भी किसी जवान से कम नहीं?

चौधरी - हां खान, आ-ग्या यकीन । ईब तै मेरा बुळध उल्टा कर दे ।

सुलेमान - देख चौधरी, आपका बैल तो मैं वापिस कर दूंगा, पर तेरे इस पड़ौसी का तो तभी वापिस करूंगा जब मुझे पांच रुपये मिल जायेंगे ।

चौधरी - आर हामनै ना दिये तै ?

सुलेमान - तो चौधरी, आपका बैल भी आपको साबुत नहीं मिलेगा । हमारे छोकरे लोग तो छुरी रखते हैं - बस ऐसी जगह जखम कर देंगे कि फिर वो हल में चलाने लायक तो रहेगा नहीं - आपको फिर वो हमारे को ही एक-दो रुपये में बेचना पड़ेगा ।

चौधरी ने पड़ौसी को एक तरफ जाकर समझाया और सुलेमान को पांच रुपये दे दिये ।

सुलेमान - ठीक है चौधरी साहब - वो देखो बाहर खेत में बहुत सारे मवेशी हैं । आप अपने दोनों बैल पहचान कर ले जाओ ।

दोनों चौधरी बाहर आये - पर पहचान नहीं पाये कि उनके बैल कौन से हैं । बहुत से बैल थे वहां पर और सबके सींग लंबे-लंबे थे और लाल रंग से रंगे हुए थे । फिर पास आकर देखने लगे । एक बोला - भाई, यो बुळध तै म्हारा-ए दीखै सै, पर उसके सींग तै छोटे-छोटे थे । दूसरा चौधरी भी एक बैल के पास गया, उसके माथे पर हाथ फेरा तो वो बैल उसके हाथ को चाटने लगा । चौधरी बोला - अरै भाई, यो बुळध तै इसा लागै सै, मेरा-ए हो, पर इसके सींग तै घणे लांबे सैं ।

कुछ देर बाद सुलेमान वहां आया और बोला - हां चौधरियो, पहचान लिये अपने बैल ? चौधरी कुछ नहीं कह सके ।

सुलेमान फिर बोला - अरे चौधरियो, सच्ची बात है जाट - बाराह बाट । तुम लोग अपने बैल को भी पहचान नहीं पा रहे ? फिर सुलेमान उन बैलों के पास गया और उनके सींगों के ऊपर फिट किये हुए नकली लंबे सींग हाथों से खींच लिये । फिर दोनों चौधरी बोले - "ओह तेरी कै - ये तै आपणे-ए बुळध सैं " !

बेरी गांव के एक सेठ जी के पास घोड़ी थी, उसकी रखवाली के लिए एक बाहमण का लड़का रखा हुआ था । रात को निवाणा गांव के कुछ मुस्लिम लड़के दो घोड़ों पर आए और घोड़ी को खोल कर उस पर सवार होकर चलते बने । बाहमण का लड़का गिड़गिड़ाने लगा कि सेठ तो मुझे नौकरी से निकाल देगा । उनमें से एक मुस्लिम छोकरा बोला - ठीक है तेरा भी कोई रास्ता खोजना पड़ेगा । फिर उसने अपनी लाठी जोर से उस लड़के के सिर पर दे मारी और बोला - जा, अब सेठ जी तेरे को नौकरी से नहीं निकालेंगे, कह देना मैने तो रोकने की बहुत कौशिश की पर वे मेरा सिर फोड़ कर घोड़ी को छीन कर भाग गए ।

अगले दिन सेठ जी ने उस लड़के को निवाणा गांव भेजा । आठ रुपये लेकर उन मुसलमानों ने सेठ की घोड़ी वापिस कर दी और उसको बता भी दिया - "सेठ से कह देना कि मेरा सिर फोड़ कर तो वे घोड़ी छीन ले गए और आठ रुपये लेकर वापिस लौटा भी दी ।"

                           

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